बुधवार, 28 अगस्त 2019

पुरातात्विक महत्व भी कम नहीं

शताब्दियों पूर्व बसे आज के अजमेर ने कितनी ही सल्तनतों का उद्भव और पराभव होते देखा है। 
यहां कितनी ही विशाल इमारतें बनी और ढह गईं, लेकिन उनके जीवित अवशेष यहां पर हुई 
अनेक राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक घटनाओं के आज भी साक्षी हैं। पुरातात्विक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। 

अजमेर पुरातात्विक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण जिला है। शताब्दियों पूर्व बसे आज के अजमेर ने कितनी ही सल्तनतों का उद्भव और पराभव होते देखा है। कितनी ही विशाल इमारतें यहां बनी और ढह गईं, लेकिन उनके जीवित अवशेष यहां पर हुई अनेक राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक घटनाओं के साक्षी हैं। इस सिलसिले में जिले के पुष्कर, नांद, बघेरा तथा भवानीखेड़ा आदि क्षेत्रों का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है।
पुष्कर स्थित बूढ़ा पुष्कर पुरातात्विक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। वहां प्रागैतिहासिक कालीन पाषाण निर्मित अस्त्र-शस्त्र पाए गए हैं। नांद गांव में कुषाण कालीन रक्त पाषाण निर्मित मिला शिवलिंग भारतीय मूर्तिकला का अनूठी मिसाल है। इसी प्रकार बघेरा गांव में मिलीं जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां इशारा करती हैं कि यहां कभी बड़ी तादाद में जैन मतावलम्बी रहते थे। कुछ मूर्तियां नया बाजार स्थित राजकीय संग्रहालय में रखी गई हैं।
जिस गढ़ का नाम इस शहर का पर्याय है, उसी तारागढ़ को ही लीजिए। अकबर-उल-अख्यार में ऐसा उल्लेख है कि तारागढ़ का किला किसी पहाड़ी पर निर्मित भारतवर्ष का प्रथम किला है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुरातात्विक दृष्टि से इसका कितना महत्व है। इसका स्थापत्य अनूठा है। दुर्ग की अनूठी विशेषता उसके तोरण द्वार को ढ़कने वाली वर्तुलाकार दीवार है। ऐसा भारत के किसी भी दुर्ग में नहीं है। इसमें प्रवेश के लिए एक छोटा-सा द्वार है। उसकी बनावट भी ऐसी है कि बाहर से आने वाले दुश्मनों को पंक्तिबद्ध करके आसानी से सफाया किया जा सके। मुख्य द्वार को ढ़कने वाली दीवार में भीतर से गोलियां और तीर चलाने के लिए पचासों सुराख हैं। किले के चारों तरफ 14 बुर्ज हैं, जिन पर मुगलों ने तोपें जमा की थीं। इन्हीं बुर्जों ने तो दुर्जेय तारागढ़ को अजेय बना दिया था। इसलिए तारागढ़ जिसके भी अधीन रहा, वह दुर्ग के द्वार पर कभी लड़ाई नहीं हारा। तारागढ़ के दुर्ग-स्थापत्य में चौदह बुर्जों का विशेष महत्व रहा। बड़े दरवाजे से पूरब की ओर जा रही किले की दीवार पर तीन बुर्जें हैं-घूंघट बुर्ज, गुमटी बुर्ज तथा फूटी बुर्ज। घूंघट बुर्ज इमारतनुमा है-दूर से यह नजर नहीं आती। बुर्ज की इस प्रकार की संरचना युद्धनीति के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण मानी जाती है। आगे है नक्कारची बुर्ज। कहते हैं कि सैय्यद मीरां साहब के साथ युद्ध में नगाड़ा बजाते हुए हजरत बुलन्दशाह यहीं मारे गए थे, इसलिए बुर्ज का नाम नक्कारची बुर्ज पड़ गया। अब तो ध्वंसावशेष ही दिखते हैं। शहर जाने वाली गिब्सन रोड उसी के पास से गुजरती है। इस बुर्ज के बाद है शृंगार चंवरी बुर्ज। वह आजकल लोढ़ों की कोठी है। इसके आगे चार बुर्जें हैं-अत्ता बुर्ज, पीपली बुर्ज, इब्राहिम शहीद का बुर्ज व दौराई बुर्ज। इनके बाद बान्द्रा बुर्ज, इमली बुर्ज, खिड़की बुर्ज व फतह बुर्ज है। इन बुर्जों के अलावा दुर्ग का दो किलोमीटर लम्बा परकोटा भी इसकी विशेषता है। इस परकोटे पर दो घुड़सवार आराम से साथ-साथ दौड़ सकते थे।
सन् 1033 से 1818 तक इस दुर्ग ने सौ से अधिक युद्ध देखे। औरंगजेब व दारा शिकोह के बीच दौराई में हुए युद्ध के दौरान 1659 में यह काफी क्षतिग्रस्त हुआ। सन् 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों ने इसमें काफी फेरबदल किया, जिसके परिणामस्वरूप अब टूटी-फूटी बुर्जों, हजरत मीरां साहब की दरगाह आदि के अलावा यहां कुछ भी बाकी नहीं बचा है।
पुरातात्विक दृष्टि से औरंगजेब को छोड़ कर अकबर, जहांगीर व शाहजहां ने अजमेर के सांस्कृतिक वैभव को बढ़ाने में भरपूर योग दिया। अजमेर में अनेक ऐसे प्राचीन स्मारक हैं, जो प्राचीन और मध्यकाल की सांस्कृतिक संपदा के द्योतक हैं। इनमें सर्वप्रथम अढ़ाई दिन का झौंपड़ा का नाम लिया जा सकता है। यहां से उपलब्ध पुरातात्विक सामग्री से यह प्रमाणित हो चुका है कि यह मूलत: एक संस्कृत विद्यालय, सरस्वती कंठाभरण था। अजमेर के पूर्ववर्ती राजा अरणोराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज तृतीय ने इसका निर्माण करवाया था। सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने इसे गिराकर कर मात्र ढ़ाई दिन में पुन: बनवा दिया। बाद में कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे मस्जिद का रूप दे दिया। इस स्थान से च्ललित विग्रह राज नाटकज् तथा च्हरकेलि नाटकज् नाम से प्रसिद्ध नाटकों से उत्कीर्ण पाषाण शिलाएं प्राप्त हुई हैं।
स्थापत्य के दृष्टि से मैग्जीन के नाम से प्रसिद्ध अकबर का किला बहुत ही महत्वपूर्ण है। अकबर ने यह किला सामरिक दृष्टि से बनवाया था, जहां से समस्त दक्षिणी पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान को उसने अपने अधिकार में कर लिया। अकबर और जहांगीर ने यहां से कई सैनिक अभियानों का संचालन किया। मेगजीन के मुख्य द्वार के दोनों तरफ दो-दो झरोखे हैं और एक गैलरी है। इन झरोखों में बैठ कर जहांगीर जनता की फरियाद सुनता था। यहां पर स्थापित अजमेर संग्रहालय में संग्रहित शिलालेख, सिक्के, प्रतिमाएं, चित्र, मूर्तियां, ताम्रपत्र इतने महत्वपूर्ण हैं कि राजस्थान के इतिहास के स्रोत के रूप में इस सामग्री में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।
शिलालेखों में बरली के शिलालेख का विशेष महत्व है। बरली के पास से भिलोट माता के मंदिर से प्राप्त चतुर्थ शताब्दी ईस्वी पूर्व का यह लेख राजस्थान में प्राचीनतम तथा अशोक से पूर्व का माना जाता है। दूसरा शिलालेख 424 ई. का है, इसमें विष्णु पूजा का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार राजा वर्मलात का बसंतगढ़ का शिलालेख, मेवाड़ के राजा शिलादित्य का साभोली का शिलालेख, पुष्कर से राजा दुर्ग राज तथा वाक्पतिराज का शिलालेख, बीसलदेव विग्रहराज के राज्याश्रित च्कवि सोमदेवज् द्वारा रचित च्हरकेलिज् नाटक का शिलालेख महत्वपूर्ण है। इनसे राजस्थान के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का महत्वपूर्ण ज्ञान होता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से संग्रहालय में संग्रहित सिक्के बहुत ही महत्व के हैं। इनमें से कुछ राजस्थान से तथा कुछ अन्य प्रदेशों से एकत्रित किये गये हैं। द्वितीय शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर ब्रिटिश काल तक के सिक्के संग्रहालय में संग्रहित हैं। कुषाण, हूण तथा गुप्त कालीन राजाओं के सिक्के शोध कार्यों के लिये बहुत सहायक हैं। बीसलदेव विग्रहराज तथा पृथ्वीराज चौहान के सिक्के भी यहां संग्रहित हैं।
गंगानगर जिले के कालीबंगा नामक स्थान से प्राप्त सामग्री राजस्थान में सैन्धव सभ्यता के अध्ययन में विशेष सहायक है। इसी प्रकार नगर और बैराठ से शुंग काल की मूर्तियां राजस्थान में प्रचलित तत्कालीन वेश भूषा का ज्ञान कराती है। चितौड़ के निकट नगरी नामक स्थान से प्राप्त मूणमय मूर्तियां भी यहां उपलब्ध हैं। यहां पर संग्रहित ताम्रपत्र राजस्थान के इतिहास में विभिन्न चरणों के अध्ययन के लिये कम महत्वपूर्ण नहीं।
संग्रहालय में प्रदर्शित कई प्रतिमाएं ऐसी हैं, जो भारतीय मूर्तिकला में अपना सानी नहीं रखती। महत्ता की दृष्टि से हर्षनाथ सीकर से प्राप्त लिंगोद्भव प्रतिमा तथा अढ़ाई दिन के झौंपड़े से प्राप्त नक्षत्रों की प्रतिमाएं उल्लेखनीय हैं। जैन धर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायों से संबंधित प्रतिमाओं का यहां अच्छा संग्रह है।
अजमेर से वाया पुष्कर पीसांगन मार्ग पर स्थित नांद गांव का भी पुरातात्विक दृष्टि से बड़ा महत्व है। नागौर जिलान्तर्गत थांवला के 10वीं शताब्दी के रनादित्य के शिलालेख में इस स्थान का नाम नन्द ग्राम के रूप में प्रयुक्त हुआ है। वर्तमान नांद ग्राम में कुषाण कालीन रक्त पाषाण निर्मित शिवलिंग मिला है। शिवलिंग की उपलब्धि से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यहां पर कभी शिव मंदिर रहा होगा।
पुरावस्तुओं का रजिस्ट्रीकरण
पुरातात्विक वस्तुओं का पंजीयन करने के लिए रजिस्ट्रीकरण कार्यालय की स्थापना अजमेर में पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम 1972, जो अप्रैल 1975 में यथा रूप से लागू किया गया है, के अन्तर्गत मई, 1976 में हुई। इस कार्यालय का कार्यक्षेत्र, अजमेर, पाली, भीलवाड़ा तथा सिरोही जिला है और अब तक अजमेर से लगभग 550, भीलवाड़ा से 68 और पाली से 30 पुरावस्तुओं का पंजीकरण किया गया है। पंजीकृत वस्तुओं में अब तक प्राप्त प्राचीनतम वस्तुओं में नवीं शताब्दी की पाषाण मूर्तियां हैं। पंजीकरण के लिये प्राप्त सामग्री में दूसरी व तीसरी शताब्दी ईस्वी की भी वस्तुएं, जिनमें एक बौद्ध मूर्ति उल्लेखनीय है, प्राप्त की गई है। अधिनियम के तहत वर्तमान में 100 वर्ष से अधिक पुरानी मूर्तियां, चित्र हस्त लिखित चित्रित ग्रन्थ आदि पुरावस्तुओं का पंजीकरण किया जाता है।
जिले में स्थित प्रमुख किले
तारागढ़, अकबर का किला, टॉडगढ़ में कर्नल टॉड द्वारा बनवाया गया किला और गोठियाना, बघेरा, धीरोता, धोलादांता, सरवाड़, धूंधरी, राताकोट, सावर, कादेड़ा, राजगढ़, पीपलाज, कदेड़ा, बांदनवाड़ा, जूनिया, जामोला, रलावता, केलू, श्यामगढ़, शोकलिया, मंडावरिया, गोविंदगढ़, पांडरवाड़ा, अरांई, रूपनगढ़, बाघसुरी, तिलोनिया, ढ़सूक, करकेड़ी, पाडलिया, भामोलाव, फतहगढ़, खरवा, मसूदा, रामगढ़ व सांपला।
केन्द्र सरकार की ओर से संरक्षित स्मारक
1. अढ़ाई दिन का झौंपड़ा
2. सोलह खंभा
3. आनासागर किनारे संगमरमर के बरामदे व पुराने हमाम
4. सुभाष उद्यान स्थित सहेली बाजार
5. नया बाजार स्थित बादशाह बिल्डिंग
6. तारागढ़ किले का द्वार
7. स्टेशन रोड स्थित अब्दुल्ला खां व उसकी बीवी का मकबरा
8. बादशाही महल
9. देहली गेट
10. त्रिपोलिया गेट
11. अजमेर-जयपुर रोड पर स्थित बावड़ी
12. अकबर द्वारा निर्मित कोस मीनार संख्या 1, 2, 3, 4, 7, 8, खानपुरा की कोस मीनार व चुगरा की कोस मीनार
राज्य सरकार की ओर से संरक्षित स्मारक-
1. अकबर का किला
2. अकबर के किले का मुख्य द्वार
3. संतोष बावला के स्मारक, पुष्कर
4. दिगम्बर जैन संतों के स्मारक
5. गोपीनाथ मंदिर, सरवाड़
6. चामुंडा माता का मंदिर।

तेजवानी गिरधर
227, हरिभाऊ उपाध्याय नगर (विस्तार), अजमेर
फोन: 0145-2600404, मोबाइल : 7742067000, 8094767000
ई-मेल:tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

ऐतिहासिक अजमेर

राजस्थान की हृदयस्थली अजमेर देश के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी स्थापना महाराजा अजयराज ने की। यहां पर सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक चौहान शासकों का शृंखलाबद्ध राज्य रहा। मुगल बादशाहों ने यहां अपना आधिपत्य तो जमाया ही, अनेक सैन्य अभियान भी चलाए। आजादी से पहले तक यह अंग्रेजों के कब्जे में रहा।

राजस्थान की हृदयस्थली अजमेर न केवल राज्य अपितु देश के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी स्थापना महाराजा अजयराज ने की। यहां पर सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक चौहान शासकों का शृंखलाबद्ध राज्य रहा। अजयराज ने उज्जैन के नरवर्मन को अवंती नदी पर हरा कर अपने राज्य की सीमा मालवा तक कर ली थी। उन्होंने गजनवी की सेनाओं से भी कड़ा मुकाबला कर विजय हासिल की। अजयराज ने ही तारागढ़ का निर्माण करवाया था। जीवन के आखिरी पड़ाव में उन्होंने अपने पुत्र अरणोराज को सिंहासन सौंप दिया और स्वयं संन्यास धारण कर पुष्करारण्य में जीवन बिताया।
अरणोराज ने भी बहादुरी का परिचय दिया और लाहौर व गजनी की यमन सेना के आक्रमण का मुकाबला कर राज्य की सीमाएं बढ़ाईं। इसी प्रकार पुष्कर में तुर्कों के आक्रमण का डट कर मुकाबला कर उन्हें खदेड़ दिया। अंतत: 1150 ईस्वी में कुमार पाल ने उसे परास्त कर दिया। बाद में उनके ही पुत्र जगदेव ने हत्या कर राज्य पर कब्जा कर लिया। जगदेव का भी वही हश्र हुआ और उनके छोटे भाई विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) ने उन्हें मार डाला। विग्रहराज चतुर्थ ने तोमरों से मुकाबला कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। यह चौहानों का स्वर्णिम काल था। चौहान काल के अन्नाजी ने आनासागर झील का निर्माण करवाया। चौहानों के अंतिम शासक पृथ्वीराज चौहान थे। इतिहास प्रसिद्ध कवि चंदवरदायी ने अपने ग्रंथ पृथ्वीराज रासो में उसका वर्णन किया है। वे अजयमेरु के संस्थापक महाराजा अजयराज व मुद्रा महिषी सोमलदेवी के प्रपौत्र, सोमेश्वर चौहान व कर्पूर देवी के पुत्र थे। उनका जन्म 1166 ईस्वी में हुआ और मात्र 14 साल की उम्र में ही सिंहासन पर असीन हुए। उन्होंने अपने सभी पड़ौसियों गुजरात, बंदुलखंड, हरियाणा, दिल्ली, पूर्वी पंजाब को परास्त कर उनकी आधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया। उन्होंने अपनी प्रेमिका, कन्नौज की संयोगिता का हरण कर अजयमेरु दुर्ग में राजरानी बनाया। उन्होंने तुर्क मोहम्मद गौरी को 1911 में तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित किया, किंतु सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने तराइन के दूसरे युद्ध में उनको हरा दिया। गौरी ने उन्हें कैद कर अजयमेरु दुर्ग में रखा, जहां उनकी निर्मम हत्या करवा दी गई। उस समय उनकी उम्र मात्र 26 साल थी। वे अंतिम हिंदू शासक थे, जिन्होंने तुर्क आक्रमणकारियों को आठ साल तक रोके रखा। इसके बाद अजमेर मुसलमानों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। दस साल में पूरा उत्तर भारत ही तुर्क सत्ता के सम्मुख नतमस्तक हो गया।
मोहम्मद गौरी ने अजमेर पर मुस्लिम शासन स्थापित करने की जिम्मेदारी कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपी और वह आस-पास के इलाके में सैन्य अभियान संचालित करता रहा। पृथ्वीराज के छोटे भाई ने मुस्लिमों का आधिपत्य स्वीकार करने वाले अपने भतीजे को गद्दी से उतारा और खुद राजा बन गया। हरिराज के सेनापति छत्रराज ने दिल्ली पर हमला किया, लेकिन कुतुबुद्दीन से हार कर भागा। उसका पीछा करते हुए कुतबुद्दीन अजमेर आया और हरिराज को हरा कर यहां कब्जा कर लिया। वह अपना विस्तार अन्हिवाड़ा तक करना चाहता था, लेकिन मेरों ने राजपूतों के सहयोग से उसे खदेड़ दिया और घायल हो कर उसने अजमेर के किले में शरण ली। राजपूतों ने किले को घेर लिया। यह घेरा कई माह रहा, लेकिन कुतुबुद्दीन की मदद के लिए गजनी से सेना आई तो राजपूतों को पीछे हटना पड़ा। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद राजपूतों ने तारागढ़ पर कब्जा कर लिया, लेकिन इल्तुतमिश ने उन्हें बेदखल कर दिया। इसके बाद तैमूर के आक्रमण तक अर्थात चौदहवीं सदी के अंत तक अजमेर दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा।
तैमूर के आक्रमण व अकबर के अजमेर विजय के बीच के काल में यहां कई बार सत्ता परिवर्तित हुई। यह क्रमश: मालवा के मुस्लिम सुल्तानों, गुजराज के सुल्तान व राजपूतों के अधिकार में रहा। सन् 1397 से 1409 के दौरान मेवाड़ के राव रणमल ने अजमेर पर अधिकार कर लिया। 1455 के बाद मांड के सुल्तान महमूद खिलजी ने अजमेर के हाकिम गजधरराय को हरा कर अजमेर पर कब्जा कर लिया। करीब पचास साल बाद राणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज ने तारागढ़ पर कब्जा कर लिया।
सन् 1533 में गुजराज के सुल्तान बहादुरशाह ने शमशेर उल मुल्क को भेज कर अपना अधिकार कर लिया। दो साल बाद ही मेड़ता के राव बीरमदेव ने गुजरात के हाकिम को खदेड़ दिया। सन् 1535 में मारवाड़ के राव मालदेव ने अपने नियंत्रण में ले लिया और 1543 तक काबिज रहा। इसके बाद शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर हमला कर अजमेर पर भी कब्जा कर लिया। इस्लाम के शाह सूर के पतन के बाद सन् 1556 में हाजी खान ने अजमेर पर कब्जा किया, लेकिन अकबर से घबरा कर वह भाग गया और अकबर के सेनापति कासिम खान ने कब्जा कर लिया। सन् 1730 तक यह मुगल शासन के अंतर्गत रहा। अकबर को अजमेर बेहद पसंद आया और उसने यहां शहरपनाह, दरगाह बाजार व शस्त्रागार बनवाए। वह साल में एक बार तो अजमेर आ ही जाता था। जहांगीर यहां तीन साल रहा। उसने यहां दौलतबाग बनवाया। शाहजहां ने बारादरी व दरगाह में जामा मस्जिद बनवाई। करीब दो सौ साल तक अजमेर मुगल साम्राज्य के अधीन रहा। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हुआ। सन् 1719 में सैयद बंधुओं के पतन के बाद जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने अजमेर पर कब्जा कर लिया। सन् 1721 में मुहम्मद शाह ने काजी मुजफ्फर के नेतृत्व में सेना भेजी, लेकिन अजीत सिंह के पुत्र अभयसिंह ने उसे भगा दिया। इसी दरम्यान जयपुर के राजा जयसिंह ने मुगल शासन की मदद की और अजमेर पर आक्रमण कर दिया। अभयसिंह की अनुपस्थिति में यहां की रक्षा कर रहे अमरसिंह को समझौता करना पड़ा और यहां फिर से मुगल साम्राज्य हो गया।
सन् 1730 में गुजरात के सर बुलंदखान ने दिल्ली की अधीनता अस्वीकार कर दी। इस पर मुगल सम्राट ने अभयसिंह को अजमेर व गुजरात का हाकिम बनाने का लालच दे कर उसकी सहायता से 1931 में गुजरात पर आधिपत्य कर लिया, लेकिन भरतपुर के जाट शासक चूड़ामण को दबाने के उपलक्ष्य में जयपुर के सवाई जयसिंह को अजमेर सौंप दिया। इससे यहां राठौड़ों व कछवाहों के बीच संघर्ष की स्थिति बन गई।
सन् 1740 में अभयसिंह के भाई बखतसिंह ने भिनाय व पीसांगन के राजाओं की सहायता से अजमेर के हाकिम को हरा कर यहां राठौड़ों का पुन: अधिकार कायम कर लिया। इस पर 8 जून, 1741 को गगवाना के पास जयपुर व जोधपुर के बीच युद्ध हुआ और जयसिंह को संधि करनी पड़ी। राठौड़ों को जयसिंह के सात परगने मिले, जिनमें अजमेर भी शामिल था।
राजपूतों की आपसी लड़ाई का लाभ मराठों ने उठाया और मेड़ता के युद्ध में मराठों के सहयोग से जयपुर के राजा ईश्वरी सिंह ने जोधपुर के राजा विजयसिंह को हरा दिया। सन् 1756 से दो साल तक अजमेर मराठों व रामसिंह के अधिकार में रहा। हालांकि छोटी-मोटी जंगें होती रहीं, लेकिन 1791 तक मराठों का ही आधिपत्य रहा। मारवाड़ के भीमराज ने मराठा सूबेदार अनवर जंग से अजमेर छीन कर छोटे भाई सिंघवी धनराज को सौंप दिया। कुछ दिन बाद ही मारवाड़ के राजा विजयसिंह ने खरवा के ठाकुर सूरजमल, जो अजमेर किले के किलेदार थे, को आदेश दिया कि अजमेर मराठों को सौंप दें। सन् 1800 तक मराठों ने यहां घोर अत्याचार किया। इस कारण धीरे-धीरे उनके खिलाफ असंतोष पनपने लगा। सेना के सर्वोच्च सेनापति रहे लकवा दादा ने बगावत कर दी। इस पर जनरल पैरों को अजमेर आधिपत्य सौंपा गया। उसने मेजर बोर गुई को अजमेर भेजा, मगर पूरे पांच माह तक प्रयास के बाद उसे कामयाबी हासिल हुई और 8 मई, 1801 को पैरों अजमेर के सूबेदार बने व लो महोदय को प्रशासन का काम सौंपा गया। इसके बाद 1818 तक अंग्रेजों व मराठों के बीच खींचतान रही। लॉर्ड वेलेजली के समय में अंग्रेजों और सिंधियाओं के बीच युद्ध छिडऩे पर मारवाड़ के राजा मानसिंह ने अजमेर मराठों से छीन लिया और तीन साल तक काबिज रहा। बाद में अंग्रेजों व मराठों के बीच समझौता हुआ व अजमेर फिर मराठों के पास आ गया। 25 जून, 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी व महाराजा आलीजाह दौलतराव सिंधिया के बीच हुए समझौते के तहत अजमेर को अंग्रेजों के अधीन सौंप दिया गया। अंग्रेजों ने नसीराबाद के पास फौजी छावनी बनाई। अजमेर को प्रांत का दर्जा दे कर इसका नाम अजमेर-मेरवाड़ा किया गया। सन् 1842 में अजमेर का प्रशासन कर्नल डिक्सन को सौंपा गया। उसके कार्यकाल में काफी विकास कार्य हुए। उसका निधन 1857 में हुआ। इसके बाद कैप्टन बी. पी. लॉयड को उपायुक्त बनाया गया। सन् 1864 व 1868 में कैप्टन रेप्टन को यह भार सौंपा गया। 20 अक्टूबर, 1870 को भारत के वायसराय लॉर्ड मेयो अजमेर आए और उन्होंने दो दिन तक दरबार लगाया, जिसमें उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी, करौली, टौंक, किशनगढ़ व झालावाड़ के राजाओं ने भाग लिया।
सन् 1871 में भारत सरकार के विदेश व राजनैतिक विभाग को अजमेर-मेरवाड़ा का प्रशासन सौंपा गया और राजपूताना के गवर्नर जनरल के एजेंट को ही पदेन मुख्य आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। उसके अधीन एक कमिश्नर व अजमेर व मेरवाड़ा के लिए एक-एक सहायक आयुक्त नियुक्त किए गए।
सन् 1875 में पहली बार प्रांत का बीस वर्षीय सेटलमेंट कर उसी के अनुरूप ही विकास कार्य शुरू किए गए। यूं तो ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने 1847 में हाई स्कूल की स्थापना की थी, लेकिन मेयो कॉलेज की स्थापना 1875 में हुई। इसी क्रम में सोफिया स्कूल व कॉलेज व सेंट एन्सलम्स स्कूल की स्थापना हुई। जून, 1864 में अजमेर को आगरा से टेलीग्राफ सेवा से जोड़ा गया। रेलवे में ये सेवाएं अगस्त 1875 में शुरू हुईं। सन् 1879 में बीबी एंड सीआई का लोको वर्कशॉप स्थापित हुआ।
इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की रजत जयंती पर रेलवे स्टेशन के सामने क्लॉक टॉवर बनाया गया। उसी के नाम से 1895 में विक्टोरिया अस्पताल बनाया गया। फॉयसागर झील को पेयजल स्रोत के रूप में 1892 में बनाया गया। इंग्लैंड की महारानी मेरी 1911 में अजमेर आई और उनकी यात्रा की स्मृति में 1912 में किंग एडवर्ड मेमोरियल की स्थापना की गई।
तेजवानी गिरधर
227, हरिभाऊ उपाध्याय नगर (विस्तार), अजमेर
फोन: 0145-2600404, मोबाइल : 7742067000, 8094767000
ई-मेल:tejwanig@gmail.com

सोमवार, 19 अगस्त 2019

अजमेर : एक संक्षिप्त

जगतपिता ब्रह्मा की यज्ञ-स्थली तीर्थराज पुष्कर और महान सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती
की दरगाह की वजह से दुनियाभर में विख्यात अजमेर अपनी विशिष्ट मिली-जुली संस्कृति व 
सांप्रदायिक सौहाद्र्र के लिए जाना जाता है। पेश है अजमेर का संक्षिप्त परिचय।

जगतपिता ब्रह्मा की यज्ञ-स्थली तीर्थराज पुष्कर और महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह की वजह से दुनियाभर में विख्यात अजमेर अपनी विशिष्ट मिली-जुली संस्कृति व सांपद्रायिक सौहाद्र्र के लिए जाना जाता है। इसका सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक इतिहास गौरवपूर्व रहा है। यद्यपि इतिहास में इसकी स्थापना की तिथी के बारे में स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन ज्ञात तथ्यों के आधार पर माना जाता है कि इसकी स्थापना सातवीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान के प्रथम पुत्र अजयराज चौहान द्वारा की गई थी। प्रारंभ में यह अजयमेरु कहलाता था, जो कालांतर में अजमेर कहलाया। राजनीतिक दृष्टि से अजमेर का इतिहास काफी उठापटक भरा रहा है। यह शहर कई बार आबाद हुआ और कई बार उजड़ा। उसका विस्तृत उल्लेख ऐतिहासिक अजमेर नामक अध्याय के अतिरिक्ति अजमेर विजन के एक लेख में किया गया है।
19 वीं शताब्दी में अजमेर ब्रिटिश व्यापार एवं वाणिज्यिक उत्थान का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। अजमेर की उपयुक्त भौगालिक स्थिति, जलवायु व अन्य अनुकूलताओं के कारण अंग्रेजी शासन में यह शिक्षा, प्रशासन व फौजी नियंत्रण के मुख्यालय के रूप में प्रसिद्ध हुआ। सन् 1866 में अजमेर म्युनिसिपल कमेटी की स्थापना हुई, जिसके अध्यक्ष मेजर डेविडसन थे। आबादी के अनुसार बाद में इसे नगर परिषद का दर्जा दिया गया और सन् 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पहल पर यह निगम बनाया गया। तत्कालीन नगर परिषद सभापति भाजपा के श्री धर्मेन्द्र गहलोत को पहले मेयर बनने का गौरव हासिल हुआ। वर्तमान में मेयर कांग्रेस के श्री कमल बाकोलिया हैं, जो प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय श्री हरिशचंद जटिया के पुत्र हैं। सन् 1875 में अजमेर को रेलमार्ग से जोड़ा गया और शिक्षा के क्षेत्र में विकास करते हुए मेयो कॉलेज, गवर्नमेंट कॉलेज, सोफिया कॉलेज व स्कूल, सेंट एन्सलम्स आदि की स्थापना हुई। इन्हीं संस्थानों की बदोलत अजमेर को राजस्थान की शैक्षिक राजधानी बनने का गौरव हासिल हुआ।
सन् 1879 में लोको कारखाना व कैरीज वर्कशॉप की स्थापना भाप के इंजन बनाने के लिए हुई। यह रेलवे स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर दूरी पर स्थित है। अजमेर ने रेलवे को सैकड़ों इंजनों का निर्माण करके दिया। आजादी के बाद सशक्त राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में अजमेर की राजनीतिक उपेक्षा के चलते यहां से इंजन निर्माण कार्य अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया। अब रेलवे के सभी प्रकार के कोच साधारण स्लीपर व वातानुकूलित कोच और पैलेस ऑन व्हील्स आदि की मरम्मत का काम यहां होता है। कम लोगों को ही जानकारी है कि यहां अंग्रेजों के जमाने में युद्ध के हथियार और गोले बनाने का काम भी होता था। रेलवे को अजमेर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी माना जाता है। इसी कारण लोग कहते हैं कि अजमेर आज जो कुछ है, वह दरगाह ख्वाजा साहब व तीर्थराज पुष्कर के साथ रेलवे की वजह से है।
सन् 1895 में क्लाक टावर व विक्टोरिया अस्पताल (वर्तमान में इसका नाम जवाहर लाल नेहरू अस्पताल है) का निर्माण प्रारंभ हुआ। अंग्रेज शासकों ने इस शहर को ब्रिटिश शासन का प्रमुख केन्द्र बना रखा था। स्वाधीनता संग्राम में भी अजमेर का विशिष्ट योगदान रहा है। अजमेर में सामाजिक जागृति की शुरुआत 19वीं शताब्दी के अंत में स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा संचालित आर्य समाज आंदोलन से हुई। राजनीतिक जागृति का उदय सन् 1914-15 में नायक रासबिहारी बोस की प्रस्तावित सशस्त्र क्रांति से हुआ। मार्च 1920 में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना हुई। सन् 1926 में श्री हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर की राजनीति में प्रवेश किया। अप्रैल 1930 के देशव्यापी नमक सत्याग्रह और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में अजमेर का विशेष योगदान रहा। देश की आजादी के बाद अजमेर मेरवाड़ा का मुख्यालय मात्र रह गया। एक नवंबर 1956 में अजमेर राज्य का विलय राजस्थान में हो गया। उस वक्त राव कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर अजमेर का महत्व बरकरार रखने के लिए यहां राजस्थान लोक सेवा आयोग और माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई। 
अजमेर राजस्थान का एक संभागीय मुख्यालय है, जिसके अंतर्गत अजमेर, भीलवाड़ा, नागौर व टौंक जिले आते हैं। यहां रेलवे का मंडल कार्यालय स्थापित है। राजस्थान राजस्व मंडल, राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान लोकसेवा आयोग सहित आयुर्वेद निदेशालय आदि प्रदेशस्तरीय महकमे भी यहां स्थापित हैं। अंग्रेजों के जमाने में राजा-महाराजाओं की संतानों के अध्ययन के लिए स्थापित मेयो कॉलेज यहां की शान है। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का क्षेत्रीय कार्यालय और रीजनल कॉलेज यह साबित करते हैं कि देश की राजधानी दिल्ली से अजमेर का कितना सीधा नाता है। इस प्रकार यह राजस्थान की शैक्षिक राजधानी के रूप में विख्यात हो गया। हालांकि अब अन्य बड़े शहरों में शैक्षिक गतिविधियां बढऩे के साथ ही शैक्षिक राजधानी का दर्जा कम हो गया है।
अजमेर को पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल के रूप में जाना जाता है। सांप्रदायिक विवादों के दौरान जहां देश के अन्य शहर दंगों की चपेट में आ जाते हैं, यह आमतौर पर शांत बना रहता है। हिंदुओं के पवित्र तीर्थस्थल पुष्करराज व मुसलमानों के पवित्र स्थान ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के अतिरिक्त जैन मंदिर, नारेली तीर्थ क्षेत्र व नसियां, बौद्ध धर्म का मठ, ईसाइयों के गिरिजाघर, सिखों के गुरुद्वारे, सिंधियों की दरबारें और साईं बाबा का मंदिर सर्वधर्म समभाव का संदेश देते हैं। आर्य समाज का भी यह गढ़ है। इसी समाज की बदौलत अजमेर में शैक्षिक गतिविधियां परवान चढ़ी हैं। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का निर्वाण अजमेर में ही हुआ।
अजमेर को राजस्थान का हृदय स्थल माना जाता है। यह 25.38 डिग्री से 26. 58 डिग्री उत्तरी अक्षांश और 73.54 डिग्री से 75.22 डिग्री पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। इसके उत्तर-पश्चिम-उत्तर में नागौर जिला, उत्तर-पूर्व में जयपुर जिला, दक्षिण-पूर्व में टौंक, दक्षिण में भीलवाड़ा और दक्षिण-पश्चिम में पाली जिला है। यह जयपुर से 138, दिल्ली से 399, अहमदाबाद से 487 व मुम्बई से 1038 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।
अरावली पर्वतमाला की गोद में बसे इस शहर की भौगोलिक पहचान तारागढ़ की पर्वत चोटी से भी होती है, जो कि समुद्र तल से 2 हजार 855 फीट ऊंची है। यहां पर करीब अस्सी एकड़ जमीन पर बना किला राजा अजयपाल चौहान ने बनवाया था। भारत में किसी भी पहाड़ी पर बनने वाला यह पहला किला है। यह किला इतिहास में हुए अनेकानेक संघर्षों का गवाह है। मुगलकाल में 10 जनवरी 1615 जनवरी को ब्रिटिश राजदूत सर टामस रो ने बादशाह जहांगीर से ईस्ट इण्डिया कंपनी के लिए भारत में व्यापार की अनुमति हासिल की। बादशाह का यही फरमान बाद में हमारे लिए अंग्रेजों की गुलामी का सबब बन गया। इसके बाद 25 जून, 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी व महाराजा दौलतराव सिंधिया के बीच हुए समझौते के तहत अजमेर को अंग्रेजों के अधीन सौंप दिया गया।
अजमेर के पश्चिमी नाग पहाड़ पर अजयपाल की घाटी से सागरमती नदी निकलती है, जो कि भांवता, डूमाड़ा व पीसांगन होते हुए गोविन्दगढ़ में सरस्वती नदी से मिलती है और दोनों मिल कर लूनी नदी बनती है। उदयपुर से निकलती बनास नदी अरावली पहाड़ी में बहती हुई अजमेर के दक्षिण-पूर्व में देवली(टौंक)से गुजर कर आगे यमुना में गिरती है। इसी बनास नदी को बीसलपुर में बांध बना कर अजमेर को पानी सप्लाई किया जाता है। इसके कुछ अन्य बरसाती नदियां भी हैं, जिनमें बांडी नदी, गौरी नदी, खरेकड़ी से पुष्कर, टामकी नदी, लीलासेवड़ी से पुष्कर, होकरा वाली नदी और किशनपुरा वाली नदी शामिल हैं।
अजमेर जिले के पश्चिम में थांवला, भैरूंदा, हरसौर व परबतसर व नावां के रेतीले मैदान हैं। किशनगढ़ के दक्षिण व अजमेर के पूर्वी भाग में उपजाऊ मैदान है, जहां मक्का, बाजरा, जौ, ज्वार, गेहूं, काला चना, सरसों व दालों की फसल होती है। यहां दो फसलें खरीफ (सियाळू) व रबी (ऊन्हाळू) होती हैं। अजमेर में दोमट, रेतीली, चिकनी दोमट, रेतीली दोमट व लाल मिट्टी पाई जाती है। यहां के प्रमुख खनिज लोहा, तांबा, सीसा, अभ्रक, मैगनीज, कार्बोनेट, पन्ना आदि हैं। सीसा खान में 1846 ईस्वी तक सीसा निकाला जाता था, जबकि लोहाखान से लोहा। लोहे की खानें घूघरा घाटी, किशनपुरा व काबरा पहाड़ (पुष्कर) में भी रही हैं। नरवर में काली बिंदी वाला संगमरमर व श्रीनगर में कातला पत्थर निकलता है। तारागढ़ के परकोटे वाली पहाड़ी में चांदी व अभ्रक की खानें रही हैं।
सामान्यत: यहां का अधिकतम तापमान 46 डिग्री सैल्शियस रहता है, जो कभी-कभी 48 डिग्री तक भी पहुंच जाता है। वैसे राजस्थानी भाषा की एक लोकोक्ति में उल्लेख है कि यहां गर्मी का मौसम खुशनुमा होता है। राजस्थानी की एक कहावत में तो इसका उल्लेख भी है:- सियाळो खाटू भलो, ऊन्हाळो अजमेर, नागाणो नित को भलो,  सावण बीकानेर। कदाचित ब्रिटिश शासकों को यह खूब पसंद आया।
अजमेर में सड़क परिवहन के पर्याप्त साधन हैं। दिल्ली से अहमदाबाद को जोडऩे वाला प्रमुख राजमार्ग है। अहमदाबाद जाने के लिए एक मार्ग ब्यावर-आबूरोड हो कर व दूसरा उदयपुर हो कर जाता है। जयपुर के लिए हर पंद्रह मिनट में बस सेवा उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी शहरों के लिए सीधी बस सेवाएं हैं। रेल मार्ग की दृष्टि से भी अजमेर का काफी महत्व है। यहां से निकलने वाले रेल मार्ग पूरे देश के रेल मार्गों से जुड़े हुए हैं और आसानी से एक ट्रेन को छोड़ कर दूसरी ट्रेन के जरिए गंतव्य तक पहुंचा जा सकता है। यहां फिलहाल वायु सेवा उपलब्ध नहीं है। सबसे पास का हवाई अड्डा जयपुर का है, जो कि 138 किलोमीटर दूर है। किशनगढ़ के पास राजमार्ग से सटी हवाई पट्टी है, जिसे हवाई अड्डे में तब्दील करने की कार्यवाही चल रही है। इसके लिए राज्य व केन्द्र सरकार के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर होने के बाद अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री श्री सचिन पायलट के प्रयासों से सर्वे की कार्यवाही शुरू हो गई है।

संपादकीय

फिर हासिल करना होगा गौरव
तेजवानी गिरधर
अरावली पर्वतशृंखला के आंचल में महाराजा अजयराज चौहान द्वारा स्थापित
यह नगरी दुनिया में अपनी खास पहचान रखती है।
इसका आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व इसी तथ्य से आंका जा सकता है कि
सृष्टि के रचयिता प्रजापिता ब्रह्मा ने तीर्थगुरू पुष्कर में ही आदि यज्ञ किया था।
पद्म पुराण के अनुसार सभी तीर्थों में तपो भूमि पुष्कर की महिमा उतनी ही है,
जितनी पर्वतों में सुमेरु और पक्षियों में गरुड़ की मानी जाती है।
सूफी मत के कदीमी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के रूहानी संदेश से
महकती इस पाक जमीन में पल्लवित व पुष्पित विभिन्न धर्मों की मिली-जुली संस्कृति
पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल पेश करती है।
इस रणभूमि के ऐतिहासिक गौरव का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि
यह सम्राटों, बादशाहों और ब्रितानी शासकों की सत्ता का केन्द्र रही है।
अनके सियासी उतार-चढ़ाव की गवाह यह धरा कई बार बसी और उजड़ी,
मगर प्रगाढ़ जिजीविषा की बदौलत आज भी इसका वजूद कायम है।
आजादी के आंदोलन में तो यह स्वाधीनता सेनानियों की प्रेरणास्थली रही।
ऐसी विलक्षण और पावन धरा को कोटि-कोटि वंदन करते हुए
गागर में सागर भरने के एक छोटे से प्रयास के रूप में आपकी सेवा में पेश है-
अजमेर एट ए ग्लांस।
इस पुस्तक में अजमेर को हरसंभव कोण से देखने की कोशिश की गई है।
तीनों कालों कल, आज व कल को एक सूत्र में पिरोने की भरसक कोशिश की गई है,
तथापि मुझे यह कहने में कत्तई गुरेज नहीं कि बहुत कुछ बयां करने को बाकी रह गया है।
दरअसल अजमेर का जो कद रहा है, वैसा मुकाम आज इसे हासिल है नहीं।
और उसकी एक मात्र वजह है राजनीतिक जागरुकता और सशक्त नेतृत्व का अभाव।
विकास की दौड़ में कछुआ साबित होने का एक कारण कदाचित हमारी संतोषी वृत्ति है,
जिसने हमें जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये का सोच दिया है।
दोष अकेला नेतृत्व का नहीं, अपितु हम सब का भी है।
पानी जैसी मूलभूत सुविधा के मसले तक पर हम चुप रह जाते हैं।
बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय के सूत्र को जेहन रखते हुए
हम जागरुक हो जाएं तो यह शहर अपने पुराने गौरव को फिर उपलब्ध हो सकता है।
अकेले धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देते हुए दरगाह ख्वाजा साहब और तीर्थराज पुष्कर को
विकसित किया जाए तो यहां की फिजां बदल सकती है।
पुरा महत्व की इमारतों की ठीक से खैर-खबर लें तो देशी-विदेशी सैलानियों का ठहराव बढ सकता है,
जो हमारे आर्थिक विकास का जरिया बन जाएगा।
इतना ही नहीं प्रयास किया जाए तो यहां सूफी मत का ऐसा शोध केन्द्र स्थापित किया जा सकता है,
जिसकी खुशबू दुनियाभर में मौजूदा आतंकवाद के जमाने को नया संदेश दे सकती है।
पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में भंग हो रही तीर्थराज पुष्कर की पवित्रता को बचाने की भी सख्त जरूरत है,
वरना यह अपनी वह पहचान खो देगा, जिसकी वजह से इसे तीर्थों का गुरू कहा जाता है।
तेजवानी गिरधर
227, हरिभाऊ उपाध्याय नगर (विस्तार), अजमेर
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